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Thursday, April 29, 2021

मन का दर्पण

        ** मेरे प्यारे भाइयों और बहनों आप कैसे हो जी ? **


**मन का दर्पण = एक गुरुकुल के आचार्य अपने शिष्य की सेवा से बहुत प्रभावित हुए। विद्या पूरी होने के बाद जब शिष्य विदा होने लगा तो गुरू ने उसे आशीर्वाद के रूप में एक दर्पण दिया। वह साधारण दर्पण नहीं था। उस दिव्य दर्पण में किसी भी व्यक्ति के मन के भाव को दर्शाने की क्षमता थी। शिष्य गुरू के इस आशीर्वाद से बड़ा प्रसन्न था। उसने सोचा कि चलने से पहले क्यों न दर्पण की क्षमता की जांच कर ली जाए। परीक्षा लेने की जल्दबाज़ी में उसने दर्पण का मुँह सबसे पहले गुरूजी के सामने कर दिया। शिष्य को तो सदमा लग गया। दर्पण यह दर्शा रहा था कि गुरुजी के हृदय में मोह, अहंकार, क्रोध आदि दुर्गुण स्पष्ट नज़र आ रहे हैं।

मेरे आदर्श, मेरे गुरूजी इतने अवगुणों से भरे हैं! यह सोचकर वह बहुत दुःखी हुआ। दुःखी मन से वह दर्पण लेकर गुरुकुल से रवाना तो हो गया लेकिन रास्ते भर उसके मन में एक ही बात चलती रही कि जिन गरूजी को मैं समस्त दुर्गुणों से रहित एक आदर्श पुरूष समझता था, लेकन दर्पण ने तो कुछ और ही बता दिया। उसके हाथ में दूसरों को परखने का यंत्र आ गया था, इसलिए उसे जो मिलता उसकी परीक्षा ले लेता। उसने अपने कई इष्ट मित्रों तथा अन्य परिचितों के सामने दर्पण रखकर उनकी परीक्षा ली। सबके हृदय में कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखाई दिया। जो भी अनुभव रहा सब दुःखी करने वाला। वह सोचता जा रहा था कि संसार में सब इतने बुरे क्यों हो गए हैं। सब दोहरी मानसिकता वाले लोग हैं। जो दिखते हैं दरअसल वे हैं नहीं। इन्हीं निराशा से भरे विचारों में डूबा दुःखी मन से । वह किसी तरह घर तक पहुंच गया। 

उसे अपने माता-पिता का ध्यान आया। उसके पिता की तो समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है। उसकी माता को तो लोग साक्षात देवतुल्य ही कहते हैं। इनकी परीक्षा की जाए। उसने उस दर्पण से माता-पिता की भी परीक्षा कर ली। उनके हृदय में भी कोई न कोई दुर्गुण देखा। ये भी दुर्गुणों से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। संसार सारा मिथ्या पर चल रहा है। अब उस बालक के मन की बेचैनी सहन के बाहर हो चुकी थी। उसने दर्पण उठाया और चल दिया गुरुकुल की ओर। शीघ्रता से पहुंचा और सीधा जाकर अपने गुरूजी के सामने खड़ा हो गया। गुरूजी उसके मन की बेचैनी देखकर सारी बात का अंदाज़ा लगा चुके थे।

शिष्य ने गुरुजी से विनम्रतापूर्वक कहा - गुरूदेव, मैंने आपके दिए दर्पण की मदद से देखा कि सबके दिलों में तरह-तरह के दोष हैं। कोई भी दोषरहित सज्जन मुझे अभी तक क्यों नहीं दिखा? क्षमा के साथ कहता हूँ कि स्वयं आपमें और अपने माता-पिता में मैने दोषों का भंडार देखा। इससे मेरा मन बड़ा व्याकुल है। तब गुरू जी हँसे और उन्होंने दर्पण का रुख शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य दंग रह गया। उसके मन के प्रत्येक कोने में राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध जैसे दुर्गुण भरे पड़े थे। ऐसा कोई कोना ही न था जो निर्मल हो। गुरूजी बोले - बेटा, यह दर्पण मैंने तुम्हें अपने दुर्गुण देखकर जीवन में सुधार लाने के लिए दिया था, ना कि दूसरों के दुर्गण खोजने के लिए। जितना समय तुमने दूसरों का दुगुर्ण देखने में लगाया, उतना समय यदि तुमने स्वयं को सुधारने में लगाया होता तो अब तक तुम्हारा व्यक्तित्व बदल चुका होता। मनुष्य की सबसे बड़ी कमज़ोरी यही है कि वह दूसरों के दुर्गुण जानने में ज़्यादा रुचि रखता है। स्वयं को सुधारने के बारे में नहीं सोचता। इस दर्पण की यही सीख है जो तुम नहीं समझ सके। यदि हम स्वयं में थोड़ा-थोड़ा करके सुधार करने लगें तो हमारा व्यक्तित्व परिवर्तित हो जाएगा।


**मेरे अति  प्यारे भाइयो और बहनों आपने अपना किमती समय निकालकर इस पोस्ट को पढ़ा  इसके लिए धन्यवाद। 

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1 comment:

  1. यह तो वास्तविकता है कि मनुष्य सदैव सामने स्थित मनुष्य के दुर्गुणों को खोजने में जुटा रहता है।
    अपनी ओर तो ध्यान भी नहीं जाता है। इस दृष्टि से यह लेख अति सुन्दर है।

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